राजा को शिकार पसंद है, दरबार में आने वाला हर शख्स अपने साथ टपकते लहू वाले बेजान जिस्म लेकर आता
एक राजा को शिकार का बड़ा शौक था। हर वक्त बंदूक कांधे पर होती। मौका मिलते ही धांय से गोली चला देते। शिकार के जिस्म से उड़ते खून के छींटे उन्हें सुर्खियां देते। रोज नया शिकार, नई गोली और नई सुर्खियां बस यही शगल था। उनके सिपाहसालार भी इसी में मशगूल रहते। राजा को नित नए शिकार करते देख पूरी प्रजा भी शिकारियों के हुजूम में तब्दील होने लगी। हर दिशा सिर्फ शिकार की खबरें आने लगीं। राजा को शिकार पसंद है, इसलिए दरबार में आने वाला हर शख्स अपने साथ टपकते लहू वाले बेजान जिस्म लेकर आता।
शुरुआत में तो लोगों को लगा कि रक्त की ये बूंदे उनके मुकद्दर बना देंगी। लोग शिकार के लिए निकलने वाली टोलियों में थाली बजाते हुए निकलने लगे। उन्हें भरोसा था कि अभी भले ही उन्हें कष्ट हो रहा है, लेकिन यह कड़वी दवाई की तरह उनके भले के लिए है। इसलिए राजा की बंदूक से निकलने वाली गोलियों को वे हर्ष फायर की तरह लेते। अपना कोई शिकार हो भी जाता तो उसे राष्ट्रहित में कुर्बानी मानते। शहादत की तरह लेते कि कुछ बड़ा पाने के लिए कुछ छोटा खोना भी पड़ेगा। शेर का शिकार करने का दिलासा देकर लोग भेड़-बकरी की तरह बांधे गए। लोग खुशी-खुशी बंध भी गए।
हालांकि इसी हंसी-खुशी के साथ सिलसिला ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया क्योंकि कुछ समय बाद लोगों को अहसास होने लगा कि शिकार की इन शौर्य गाथाओं में उनके हिस्से में लहू के छींटों के अलावा कुछ नहीं आ रहा है। बंदूक से निकलने वाली गोलियां किसी का सीना नहीं देख रहीं। कोई ऐसे मर रहा है तो कोई किसी और तरीके से मारा जा रहा है। गोश्त की मंडी में आवक बढ़ जरूर गई है, लेकिन उसका सारा मुनाफा कहीं ओर ही जा रहा है। कुछ यहां मौज उड़ा रहे हैं तो कोई अपने हिस्सा लूटकर विदेश जा पहुंचे। वे खुद तो असल में गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं। निशाना कहीं भी लगाया जा रहा है, लेकिन असली शिकार तो वे ही हो रहे हैं।
राजा के शौर्य और शिकार दोनों से लोगों को अरुचि होने लगी। सुर्खियां सरकती देख राजा के खेमे में खलबली मचना स्वाभाविक थी। जिन लोगों को नौसिखिया कहकर राजा मजाक उड़ाते थे, उनके प्रति सहानुभूति बढऩे लगी। लोगों को लगने लगा शिकारी राजा से नौसिखिया क्या बुरा, कमजोर भी निकला तो कम से कम हम पर तो तलवार नहीं चलाएगा। फिर शिकार के कहानियों से उसे कुछ हासिल भी तो नहीं हुआ था। जिन कशीदों को काढक़र राजा ने अपने लिए शॉल बनवाई थी, उनके सितारे टूटकर बिखरने लगे, सारे वादे, इरादे और दिलासे जुमलों में पिघलकर बहने लगे।
एक शाम राजा अपने सिंहासन पर मसनद लगाए बैठा था। कोरस में कम होते स्वरों से चिंतित सिपाहसालार का मुंह ताक रहा था। एक ही सवाल था कि मु_ी से रेत की मानिंद फिसलते रसूख को कैसे बचाया जाए। सिपाहसालार ने फरमाया हुजूर इस चक्रव्यूह से निकलने का एक ही रास्ता है बंदूक की नाली को उल्टा घूमा लिया जाए और फिर से प्रजा वत्सलता का कोई राग छेड़ा जाए। बस अब और शिकार नहीं। राजा की आंखें चमक उठी, लेकिन सवाल था कि ये दिशा परिवर्तन लाए कैसें।
तभी खबर आई कि भुला दिए गए सरपस्त का साया सिर से उठ गया है। जो अपनी उदारता के लिए ही सबका अजीज था। तत्काल बंदूक को संदूक में डालकर उसी में से पुरानी तस्वीरें निकाल ली गईं। शिकार के शोर की जगह गम की बदलियों से आसमान भर दिया गया। सहानुभूति की लहर पर सवार राजा और सिपाहसालार निकले। भीगी आंखों से राजपथ का अभिषेक करते, दिवंगत सरपरस्त का यशगान करते हुए। लोगों को अहसास दिलाने के लिए कि हम भी उसी डाली के फूल हैं। हमारे भीतर भी वही खुशबू और वही नूर है।
लोग उमड़े तो राजा और सिपाहसालार को यकीन हो गया कि यही वह मोड़ है, जिस पर गियर बदला जा सकता है। गियर बदल लिया गया। अब गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले और नदी की बूंद-बूंद तक सरपरस्त की महक पहुंचाने का जिम्मा उठाया गया है। फिर फूल बरस रहे हैं, जयकारे लग रहे हैं, आंखें भीग रही हैं, उम्मीद जाग रही है। शिकारी खुश हो ही रहा होगा, क्योंकि अब तो बिना गोली ही शिकार हो रहा है।