आजादी की नागपंचमी
किसी बिल में हाथ डालकर मुद्दों का एक नाग पकड़ लीजिए। उसका मुंह दबाइये और वश में कर लीजिए इस हद तक कि वह पलटकर न आपको पूंछ मारे और न ही दांत गड़ाए। अब इसे पिटारे में लेकर घूमते रहिए गली-गली। बस हर देहरी पर नाग का महिमा मंडन करने से मत चूकिए। अहसास कराते रहिए कि ये मुद्दा जब तक जिंदा है और इस पर आपके हल्दी-कंकू और दूध का कटोरा है, दान-दक्षिणा है, तब तक आप सुरक्षित हैं। आपके पुण्य बढ़ रहे हैं, भाग्य उदय है। जिस दिन इसकी सेवा सुश्रुआ में कसर हुई, उस दिन सब क्षीण हो जाएगा। आपके सितारे टूट कर धरती पर आ धमकेंगे, राख के ढेर में बदल जाएंगे। शाम होते ही, मक्सद निकलते ही उस नाग को फिर छोड़ आइये उसी बिल में, जहां से अगली बार फिर निकाला जा सके।
अब इस कहानी को देश के लोकतंत्र पर पटककर देखिए। एक-एक किरदार आंखों के आगे नुमाया हो जाएगा। कौन सपेरा है, कौन सांप है, कौन पिटारा लेकर घूम रहा है और कौन दूध पिलाने, पूजा करने को विवश है। वह भी तब जब सब जानते हैं कि यही सांप अगर कहीं खुले में मिल जाए तो हल्दी-कंकू और दूध के कटोरों की जगह सब लाठियों से उसकी पूजा करना चाहे।
माहिर सपेरा जानता है, कब सांप पकडऩा है, कब उसके विषदंत निकालना है, कैसे पिटारे में रखना है और किस दिन उसे लेकर गली-गली घूमना है। सबसे बढक़र यह भरोसा बनाए रखना कि लोग सांप को दूध पिला रहे हैं और खुद की बेहतरी के लिए उसके आगे नतमस्तक है।
यहां बुद्धिमान लोग सवाल उठा सकते हैं कि गलती तो जनता की है। वह सब जानकर भी क्यों डर के इस व्यापार का शिकार होती है। गलियों में सपेरे तब तक घूमेंगे जब तक उनके भीतर पूजा और दान-दक्षिणा मिलने का भरोसा बरकरार रहेगा। लोग नागों की पूजा करना बंद कर देंगे तो यह नाग पंचमी भी अपने आप बंद हो जाएगी। अफसोस इसी बात का है कि मुद्दों के इन नागों पर किसी मेनका गांधी का जोर नहीं चलता।
क्योंकि डर कहीं बाहर से नहीं आता। वह बना रहता है हमारे भीतर ही। जब तब फुंफकारता रहता है हमें। क्योंकि अतल गहराइयों तक पैठी हुई हैं कई कहानियां। किस्से घुसा दिए गए हैं दिलोदिमाग में। इनकी पूजा नहीं की तो किसी दिन अपनी, अपनों की और पूरी कौम की पूजा करने को विवश हो जाओगे। पीढिय़ों की तस्वीरों पर एक झटके में हार डल जाएगा।
क्योंकि जंगल के सांपों के भले एक मुंह होते हैं, लेकिन मुद्दों के सांप कई मुंह वाले होते हैं। एक-एक मुंह से 10-10 दिशाएं नापते हैं, नाचते कम और नचाते ज्यादा हैं। सपेरे का कौशल इसी बात में है कि वह कितना मुफीद सांप पकड़ पाता है। जिसके हाथ में जितना दमदार सांप होता है, उसकी पोटली उतनी भारी हो जाती है। वह मांग-पूर्ती के नियमों से परे हो जाता है। हर गली से उसके लिए आवाज उठने लगती है। क्योंकि जितना बड़ा सांप उतना ही बड़ा डर। जितना बड़ा डर उतना ही ज्यादा सत्कार और स्वीकार्यता।
इसके बाद भी सोचते हैं कि हम स्वेच्छा से सांप को दूध पिला रहे हैं। ये सांप हमारे लिए पकड़े गए हैं। हमारे बेहतर कल की उम्मीदें इस कदर सांपों से जोड़ दी गई है कि उसकी केचुली भले छूट जाए, लेकिन उस पर चिपके मुद्दे उतरते नहीं। उनके डंसने का डर नाग से ज्यादा हमें नचा रहा है और हम नाच रहे हैं। कई बार जब बही खाता खोलकर बैठते हैं तो आजादी का यही हासिल नजर आता है। किसी को नाग पकडऩे का मौका मिल गया है और कोई उन नागों की पूजा करने को अभिशप्त है।
यही लोकतंत्र और आजादी का नाग पंचमीकरण है। बिल से निकाले गए सांपों के दम पर सियासत की बीन बज रही है। उससे अलग-अलग धुन फूट रही है। नाग इशारों से नाचता है और हम- आप समझते हैं, सपेरे का संगीत उसे मस्त किए हुए है। असल में मस्त तो हम हुए हैं, जो सबकुछ जानते हुए भी हर दिन नाग पंचमी मनाते हैं। सपेरा कब पकड़ेगा, कब नाग को छोड़ देगा, लेकिन हम हैं कि उसके डर से कभी बाहर ही नहीं निकल पाते। वही डर लोकतंत्र को इन सपेरों के पिटारों में ले आता है। हम फिर भी आजादी मुबारक कहते हैं।